आकाश के मुसाफिरों...
कहाँ गए तुम सब...
उन्मुक्त गगन के राहगीरों...
कहाँ छुप गए तुम अब
नभ की खिलखिलाहट क्यों है गुम
चहकती आवाजों क्यों चुप हो तुम
दिख नहीं रही वह लड़ी तुम्हारी
डगर अब खाली सी पड़ी बेचारी
हवा से खेलने वाले ऐ नादान परिंदे
क्यों नहीं दिख रहे पेड़ो पर तेरे घरोंदे
आशियाना क्या बसा लिया कहीं और
उड़ रहा जाने तू आजकल किस ओर
बिना तेरे सवेरा अब कुछ फीका सा लगे
गोधुली की लालिमा भी कुछ कम ही सजे
रह तकते बीत रहे कितने मौसम फागन
दाने भी अकेले बिखरे से पड़े अब हर आँगन
कर बैठा ऐसी भूल मैं क्यूँ
दूर हो गया तू मुझसे यूँ
आगे बढने की इस होड़ मैं
सच पूछो बहुत पीछे रह गया...आज मैं इस दौड़ मैं...
एक कुटुंब के थे हम सब प्यारे
स्वार्थ से मेरे हो गए बंटवारे
प्रकृति (माँ) कोस रही मुझ बच्चे को
क्यों दूर किया तुझ नन्हे को
राह तक रहे तेरी अपने द्वारे
क्षमा कर लौट आ मेरे प्यारे
नहीं तेरे बिन अस्तित्व कुछ मेरा
आके लगा दे फिर अपने घर डेरा
लव
२३ August २०१२
9 comments:
gud one...
i must say, nadan parinde ghar aaja..
bikhre motiyo ko iktha karna bahut mushkil hota ha ...inhe mat bikarne do
nice one
LAV bhaiya.....aap se, aap ke Belagaam Talent se.....LOVE sa hota ja riya hai ;D
.......way to GO,Bro =)
Very beautiful....This thot has been inspired by adverse effect of all mobile towers which affected and compeled birts to leave their places.
Thanks everyone...Sugandh it has been because you shared this thought with me...
lav good one bilkul deepika padukpne ki tarah "acchi hai par lambi hai"
Accha likhte ho ..keep writing...
Post a Comment