Tuesday, August 11, 2015

बेटी है तो कल है

समाज मनुष्य द्वारा निर्मित एक व्यवस्था है. इस व्यवस्था के पीछे मुख्य उद्देश्य मनुष्य प्रजाति को बढ़ाना और विकसित करना है और वह भी एक नियमबद्ध प्रक्रिया से. नियमबद्ध प्रक्रिया ही मनुष्यो को बाकी जीव और प्राणियों से भिन्न करती है. इस व्यवस्था और नियमबद्ध प्रक्रिया के उद्देश्य की प्राप्ति का दायित्व महिलाओं और पुरुषो, दोनों पर एक समान है. इस दायित्व को निभाने हेतु दोनों का एक सामान अस्तित्व में होना और एक दूसरे के अस्तित्व का एकसमान आदर करना परमावश्यक और अनिवार्य है. दोनों महिलाओं एवं पुरुषो की संरचना कुछ इस प्रकार है की दोनों एक दूसरे के पूरक है और एक दूसरे के समन्वय और सहअस्तित्व से ही समाज का अस्तित्व संभव है. और महिलाओं एवं पुरुषो का एकसमान एवं निरन्तर विकास ही समाज के अस्तित्व को बनाये रखने तथा एक सशक्त समाज को निर्मित करने में सहायक सिद्ध होता है.  और एक सशक्त समाज ही एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण करता है.

हर समाज में महिलाओं एवं पुरुषो की भूमिका निर्धारित होती है. यह भूमिकाएं आर्थिक गतिविधियों पर आधारित हुई. और आर्थिक गतिविधिया भूगोलिक स्थिति एवं परिस्थिति के अनुसार कालांतर में विकसित होती गयी. चूँकि मानव सभ्यता के इतिहास में अधिकतर समय समाज की गतिविधिया पुरुष केंद्रित रही जिससे की पित्रात्मकसत्ता उभरी। इसके २ मुख्य कारण थे -:
१) पुरुषो का नैसर्गिक तौर पे महिलाओं से अधिक शारीरिक बल होना, जिससे की खेती, युद्ध और व्यापार केंद्रित समाज पुरुष प्रधान बने. 
२) महिलाएं जननी होती है, और चूँकि प्रकृति ने ऐसा नियम बनाया है  की संतान को जन्म मात्र स्त्री ही दे  सकती है और उसके लिए एक महिला को निश्चित तौर पे एक अवधि से हो कर गुज़ारना पड़ता है, और एक ऐसे समाज में जब ४ -५ संतान होना एक आम बात थी  तो  महिला के करीबन १० साल संतान को जन्म देने और प्रारंभिक लालन पोषण में ही व्यतीत करने पड़ते थे, जिस कारण से वह अन्य सामाजिक गतिविधियों से दूर रह जाती थी.

परन्तु ऐसे भी कई समाज और सभ्यताएं थी और आज भी है जो मातृसत्तात्मक है.केरल, मणिपुर, मेघालय, उत्तराँचल,में आज भी कई ऐसे समाज है जो मातृसत्तात्मक है और एक बात यही कहना चाहूंगा की यह वह राज्य भी है जिनका लिंग अनुपात राष्ठ्रीय औसत से कई अधिक है. 

लेकिन आज के युग की बात अलग है. आज का सामज अलग है. आज की गतिविधिया अलग है. विश्व अब आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है, अब आर्थिक, सामाजिक और कई ऐसी गतिविधिया पनपने और उजागर होने लगी है जिसमे महिलाओ की भागीदारी फिर पुरुषो के मुकाबले खड़ी हो रही है. तकनिकी विकास, आधुनिकरण, शिक्षा ने ऐसे साधनो को मनुष्य के सामने ला खड़ा कर दिया है जिस पर अब किसी लिंग विशेष का आधिपत्य नहीं रह गया है. ऐसे बदलते समय और माहोल में अब समाज के हर व्यक्ति की यह ज़िम्मेदारी है की वह भी अपनी सोच को बदले और एक नया रूप दे जिसमे महिलाओं और पुरुषो को एक सामान अधिकार प्राप्त हो और फिर एक बार महिलाएं और पुरुष वाकई कंधे से कन्धा मिलाकर चले. और इस सोच को बदलने के लिए पुरुषो से अधिक स्वयं महिलाओ को प्रयास करने होंगे। उन्हें स्वयं की शक्ति का आभास होना और उस पर आत्मविश्वास होना अनिवार्य होगा. महिलाओ को स्वयं पहले अपने आप को अपनी दृष्टि में ऊपर उठना होगा और अपने महत्व को समझना होगा। पुरुषो को भी खुले मन से अपने मस्तिष्क के चक्षुओ को खोलना होगा, उन्हें यह समझना होगा की उन्हें भी बरसो से चली आ रही सोच और व्यवस्था को बदलना होगा और सामान रूप से महिलाओ के साथ अपने अधिकार साझा करने होंगे. मैं जानता हु यह सोच लाने में और इसे वास्तविक रूप देने में काफी समय लगेगा। युगो से चलती आ रही मानसिकता और आदतो को पल भर में नहीं बदला जा सकता या हटाया जा सकता है. इसके लिए सतत प्रयास और निरंतर उन प्रयासों की समीक्षा करना तद्पश्चात उसे क्रियान्वित करना होगा। परन्तु इन प्रयासों की निरंतरता को बनाये रखने के लिए हम सब को सर्वप्रथम एक सोच बनानी होगी और वह सोच है - बेटी है तो कल है. और यह सोच बनाना कोई कठिन कार्य नहीं है. इसके लिए मनुष्य को स्वार्थी होना है और अपने स्वार्थ के बारे में सोचना है - और यह सरल है क्युकी हर मनुष्य किसी न किसी ढंग से नैसर्गिक रूप से स्वार्थी है. और वह स्वार्थ भला क्या हो सकता है - वह स्वार्थ है खुद के अस्तित्व को बनाये रखने का. जैसा की मैंने ऊपर लिखा है की एक स्त्री ही जननी हो सकती है, पुरुष कितना भी बलवान या सामर्थ्यवान क्यों न हो… वह माँ नहीं बन सकता। एक माँ बनने के लिए एक बेटी का जन्म होना अनिवार्य है. 

यह बात तो हुई एक सोच बनाने की  - की बेटियाँ है तो कल है. परन्तु सिर्फ सोच ही नहीं एक सशक्त सोच को बनाना होगा और उस सोच के लिए हमे भाषा, व्यवहार, आचार विचार, संस्कारो में मूलभूत परिवर्तन करने होंगे जीससे की एक नयी संरचना तैयार हो जहाँ जितनी कामना बेटो की हो उतनी ही बेटियो की भी हो, जितना प्यार और दुलार बेटे को मिले उतना ही बेटियो को प्राप्त हो, जितने अवसर बेटो के लिए तैयार किये जाए, उतने ही बेटियो के लिए उत्पन्न किये जाए, जितना बेटो को पढ़ाया जाए, उतना ही बेटियो को पढ़ाया जाए, जो अधिकार बेटो को मिले, वह ही अधिकार बेटियो के भी हो, जितने बेटे हो उतनी ही बेटियाँ भी हो. हमे क्या मूलभूत परिवर्तन करने होंगे, उसमे से कुछ चीज़ें मेरे मन में है जैसे की -:

१) भाषा में संशोधन - हमारे समाज में योग्यता पर आधारित बेटो के लिए सपूत जैसे शब्द है, परन्तु बेटियो के लिए मेरे अनुसार नहीं है. मुझे लगता है हिंदी भाषा के विद्वानो को इस पर विचार करना चाहिए, और अगर है तो उसका प्रयोग अधिक से अधिक होना चाहिए. जब तक हम आम लोग यह प्रयास कर सकते है की बेटी शब्द को ही विशेषण के रूप में स्वीकार कर ले. बेटी का अर्थ ही गुणों से भरपूर और योग्य के रूप में किया जाये. 
२) शैक्षणिक परिवर्तन - कबीर जी ने बड़ी सुन्दर बात कही है - गुरु गोबिंद दोनों खड़े का के लगू पाय, बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताये। गुरु श्रेष्ठ है जिसके कारण में गोबिंद को पहचान पाउँगा। गुरु की बात जब करते है तब मुझे लगता है की किसी भी व्यक्ति की सर्वप्रथम गुरु उसकी माँ होती है. और किसी भी समाज में गुरु की योग्यता क्या है उस पर उसके शिष्यों का भविष्य यानि की समाज का भविष्य निर्भर रहता है. सशक्त समाज का सच्चा चरित्र चित्रण तभी हो सकता है, जब जो संतान जन्म ले वह योग्य बने और समाज को विकसित करे. एक शिक्षित, सभ्य, संस्कार से परिपूर्ण एक पीढ़ी ही समाज को असमनता, भ्रष्टाचार, अपराध, आराजकता, हानि, और क्षति से दूर कर एक आदर्श समाज की स्थापना कर सकती है. ऐसी पीढ़ी के लिए ऐसी गुरु स्वरुप माँ  की आवश्यकता है जो स्वयं शिक्षित हो, सशक्त हो. और चूँकि आज की बेटियाँ ही कल की माँ है, तो बेटियो का शिक्षित होना, सशक्त होना ही हम सब का उद्देश्य भी होना चाहिए. बेटियो को पढ़ाना और आगे बढ़ाना ही समाज को पढ़ाने और आगे बढ़ाने का पर्यायवाची है. 
३) सांस्कृतिक परिवर्तन - यह बात जगजाहिर है की, कुछ संस्कृतीयो में अधिकाधिक या सब के सब व्रत पुरुषो (बेटा, पति, पिता, भाई) की प्राप्ति, आयु, सेहत, इत्यादि के लिए महिलाओ द्वारा रखे जाते है. मेरा व्यक्तिगत विचार यह है की पुरुषो को भी सांकेतिक रूप से ऐसे कुछ प्रयास महिलाओ के प्रति करने चाहिए। यह प्रयास व्यक्तिगत रूप से भी हो  सामुदायिक, सामाजिक स्तर पर भी किया जा सकता है. 
हिन्दू संस्कृति में एक बेहद ही सुन्दर और प्यार सा त्यौहार मनाया जाता है - रक्षाबंधन। यह भाई बेहेन का पर्व है जिसमे बेहेन अपने भाई को एक रक्षा बंधन बांधती है जो की भाई को अपनी बेहेन की रक्षा के दायित्व को हमेशा याद दिलाता रहे. मैं कई बार यह सोचता हु की अगर किसी घर परिवार में सिर्फ बेटियाँ ही है, तो क्या वह इस प्यारे से बंधन  और पर्व को नहीं मानती या मनाती है क्या।  उस घर मैं कोई भी बेटी भी अपने दायित्वों को उतना ही निर्वाह करती होगी जितना की एक बेटे से अपेक्षित होगा, उस घर की बड़ी बेटी अपनी छोटी बहेनो का उतना ही ख्याल और रक्षा करती होगी जितना की दूसरे घर मैं एक भाई अपनी बेहेन के लिए करता होगा। तो क्या यह सही नहीं होगा की बेहेन भी बहेनो को राखी बांधे और एक दूसरे की शक्ति को समझे और एक दूसरे की रक्षा के लिए खड़ी रहे. ऐसे भी घर होंगे जहा भाई बहेनो से बहुत ही छोटे होंगे और वास्तविकता में बहन ही उस छोटे से भाई की रक्षक हो और पालक हो. ऐसे घर मैं क्या भाई को अपनी उस बड़ी बेहेन को राखी नहीं बांधनी चाहिए। मेरे अनुसार अवश्य बांधनी चाहिए। यह रक्षा बंधन है. यह भाई बेहेन का पर्व है. दोनों का एक दूसरे के प्रति रक्षा का बराबर दायित्व होना चाहिए। दोनों को एक दूसरे को इस बंधन से बांधना चाहिए. यह सिर्फ बेटियो के विश्वास को ही नहीं उनके आत्मसम्मान की रक्षा भी करेगा और एक नयी ऊर्जा प्रदान करेगा। 

ऐसे ही और भी बहुत सी बातें होंगी, कुछ मेरे मन में थी जो मैंने साझा की, कुछ आपके मन में होंगी जिसे आप भी साझा करे. मुझे विश्वास है की गर हम वाकई एक सशक्त, सुदृढ़, सफल, साफ़, संस्कारी, समाज की संरचना और स्थापना करने का मन बना ले  तो हमे कोई भी नहीं रोक सकता और इसके लिए हमे बेटियो को इस दुनिया में आने से नहीं रोकना है, हमे बेटियो को पढने से नहीं रोकना है, हमे बेटियो को आगे बढ़ने से नहीं रोकना है, और हमे बेटियो को सोचने, सुनने, बोलने, देखने, चुनने और करने से नहीं रोकना है. 

मैं निवेदन करता हु सभी पाठकगणों से की बेटियो को पराये धन के बजाये धन समझे। उनके विवाह की चिंता इतनी न करे की वह बोझ लगने लग जाए …अगर चिंता करे तो उन्हें योग्य बनाने की करे.  वह योग्य बनेंगी तो आपकी एक नहीं समस्त चिन्ताओ का निवारण करेंगी। साथ ही साथ एक बात मैं सबसे कहना चाहूंगा विशेषकर अपनी माताओ, बहेनो और बेटियो से, और वह यह है की, अधिकार हमेशा ज़िम्मेदारी और जवाबदारी के साथ आते है. और ज़िम्मेदारी और जवाबदारी से की गयी हर चीज़ एक मजबूत नींव को बनाती है जिस पर भविष्य की सुन्दर अट्टालिका का निर्माण होता है. सबसे पहले हर व्यक्ति एक सुन्दर (मन से, चरित्र से) व्यक्ति बने, फिर एक सुन्दर (संस्कारो से) परिवार बनाये और फिर एक सुन्दर (संस्कृति से) समाज की स्थापना करे और एक सुन्दर (शक्ति से) राष्ट्र का निर्माण करे.      

लव ग्रोवर 'मुसाफिर'
11/8/15                   
             

1 comment:

Unknown said...

Very nice article. You really addressed the concerns of modern day very well !! I request the readers to spread the word among our friends/relatives and follow it. The society is will surely change..I see it coming already :-)